loading

Shiva Purana Sri Rudra Samhita (1st volume) From the sixteenth to the twentieth chapter

  • Home
  • Blog
  • Shiva Purana Sri Rudra Samhita (1st volume) From the sixteenth to the twentieth chapter

Shiva Purana Sri Rudra Samhita (1st volume) From the sixteenth to the twentieth chapter

शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (प्रथम खण्ड) के सोलहवें अध्याय से बीसवें अध्याय तक (From the sixteenth to the twentieth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (1st volume)

शिव पुराण

श्रीरुद्र संहिता

प्रथम खण्ड

सोलहवाँ अध्याय

"सृष्टि की उत्पत्ति"

ब्रह्माजी बोले :- नारद ! शब्द आदि पंचभूतों द्वारा पंचकरण करके उनके स्थूल, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी, पर्वत, समुद्र, वृक्ष और कला आदि से युगों और कालों की मैंने रचना की तथा और भी कई पदार्थ मैंने बनाए । उत्पत्ति और विनाश वाले पदार्थों का भी मैंने निर्माण किया है परंतु जब इससे भी मुझे संतोष नहीं हुआ तो मैंने मां अंबा सहित भगवान शिव का ध्यान करके सृष्टि के अन्य पदार्थों की रचना की और अपने नेत्रों से मरीच को, हृदय से भृगु को, सिर से अंगिरा को, कान से मुनिश्रेष्ठ पुलह को, उदान से पुलस्त्य को, समान से वशिष्ठ को, अपान से कृतु को दोनों कानों से अत्री को प्राण से दक्ष को और गोद से तुमको, छाया से कर्दम मुनि को उत्पन्न किया। सब साधनाओं के साधन धर्म को भी मैंने अपने संकल्प से प्रकट किया। मुनिश्रेष्ठ! इस तरह साधकों की रचना करके, महादेव जी की कृपा से मैंने अपने को कृतार्थ माना। मेरे संकल्प से उत्पन्न धर्म मेरी आज्ञा से मानव का रूप धारण कर साधन में लग गए। इसके उपरांत मैंने अपने शरीर के विभिन्न अंगों से देवता व असुरों के रूप में अनेक पुत्रों की रचना करके उन्हें विभिन्न शरीर प्रदान किए। तत्पश्चात भगवान शिव की प्रेरणा से मैं अपने शरीर को दो भागों में विभक्त कर दो रूपों वाला हो गया। मैं आधे शरीर से पुरुष व आधे से नारी हो गया। पुरुष स्वयंभुव मनु नाम से प्रसिद्ध हुए एवं उच्चकोटि के साधक कहलाए। नारी रूप से शतरूपा नाम वाली योगिनी एवं परम तपस्विनी स्त्री उत्पन्न हुई। मनु ने वैवाहिक विधि से अत्यंत सुंदरी, शतरूपा का पाणिग्रहण किया और मैथुन द्वारा सृष्टि को उत्पन्न करने लगे। उन्होंने शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति नामक तीन पुत्रियां प्राप्त कीं। आकूति का 'रुचि' मुनि से, देवहूति का 'कर्दम' मुनि से तथा प्रसूति का 'दक्ष प्रजापति' के साथ विवाह कर दिया गया। इनकी संतानों से पूरा जगत चराचर हो गया।

रुचि और आकूति के वैवाहिक संबंध में यज्ञ और दक्षिणा नामक स्त्री-पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ। यज्ञ की दक्षिणा से बारह पुत्र हुए। मुने! कर्दम और देवहूति के संबंध से बहुत सी पुत्रियां पैदा हुई दक्ष और प्रसूति से चौबीस कन्याएं हुईं। दक्ष ने तेरह कन्याओं का विवाह धर्म से कर दिया। ये तेरह कन्याएं श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वसु, शांति, सिद्धि और कीर्ति हैं। अन्य ग्यारह कन्याओं- ख्याति, सती, संभूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, संनति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा का विवाह भृगु, शिव, मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्र्तु, अत्रि, वशिष्ठ, अग्नि और पितर नामक मुनियों से संपन्न हुआ। इनकी संतानों से पूरा त्रिलोक भर गया।

अंबिका पति महादेव जी की आज्ञा से बहुत से प्राणी श्रेष्ठ मुनियों के रूप में उत्पन्न हुए। कल्पभेद से दक्ष की साठ कन्याएं हुईं। उनमें से दस कन्याओं का विवाह धर्म से, सत्ताईस का चंद्रमा से, तेरह कन्याओं का विवाह कश्यप ऋषि से संपन्न हुआ। नारद! उन्होंने चार कन्याएं अरिष्टनेमि को ब्याह दीं। भृगु, अंगिरा और कुशाश्व से दो-दो कन्याओं का विवाह कर दिया।

कश्यप ऋषि की संतानों से संपूर्ण त्रिलोक आलोकित है। देवता, ऋषि, दैत्य, वृक्ष, पक्षी, पर्वत तथा लताएं आदि कश्यप पत्नियों से पैदा हुए हैं। इस तरह भगवान शंकर की आज्ञा से ब्रह्माजी ने पूरी सृष्टि की रचना की। सर्वव्यापी शिवजी द्वारा तपस्या के लिए प्रकट देवी, जिन्हें रुद्रदेव ने त्रिशूल के अग्रभाग पर रखकर उनकी रक्षा की वे सती देवी ही दक्ष से प्रकट हुई थीं। उन्होंने भक्तों का उद्धार करने के लिए अनेक लीलाएं कीं। इस प्रकार देवी शिवा ही सती के रूप में भगवान शंकर की अर्धांगिनी बनीं। परंतु अपने पिता के यज्ञ में अपने पति का अपमान देखकर उन्होंने अपने शरीर को यज्ञ की अग्नि में भस्म कर दिया। देवताओं की प्रार्थना पर ही वे मां सती पार्वती के रूप में प्रकट हुईं और कठिन तपस्या करके उन्होंने पुनः भगवान भोलेनाथ को प्राप्त कर लिया। वे इस संसार में कालिका, चण्डिका, भद्रा, चामुण्डा, विजया, जया, जयंती, भद्रकाली, दुर्गा, भगवती, कामाख्या, कामदा, अंबा, मृडानी और सर्वमंगला आदि अनेक नामों से पूजी जाती हैं। देवी के ये नाम भोग और मोक्ष को देने वाले हैं।

मुनि नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें सृष्टि की उत्पत्ति की कथा सुनाई है। पूरा ब्रह्माण्ड भगवान शिव की आज्ञा से मेरे द्वारा रचा गया है। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र आदि तीनों देवता उन्हीं महादेव के अंश हैं। भगवान शिव निर्गुण और सगुण हैं। वे शिवलोक में शिवा के साथ निवास करते हैं।

शिव पुराण

श्रीरुद्र संहिता

प्रथम खण्ड

सत्रहवाँ अध्याय

"पापी गुणनिधि की कथा"

सूत जी कहते हैं :- हे ऋषियो ! तत्पश्चात नारद जी ने विनयपूर्वक प्रणाम किया और उनसे पूछा- भगवन्! भगवान शंकर कैलाश पर कब गए और महात्मा कुबेर से उनकी मित्रता कहां और कैसे हुई ? प्रभु शिवजी कैलाश पर क्या करते हैं? कृपा कर मुझे बताइए। इसे सुनने के लिए मैं बहुत उत्सुक हूं।

ब्रह्माजी बोले :– हे नारद ! मैं तुम्हें चंद्रमौलि भगवान शिव के विषय में बताता हूं। कांपिल्य नगर में यज्ञ दत्त दीक्षित नामक एक ब्राह्मण रहते थे। जो अत्यंत प्रसिद्ध थे। वे यज्ञ विद्या में बड़े पारंगत थे। उनका गुणनिधि नामक एक आठ वर्षीय पुत्र था। उसका यज्ञोपवीत हो चुका था और वह भी बहुत सी विद्याएं जानता था। परंतु वह दुराचारी और जुआरी हो गया। वह हर वक्त खेलता-कूदता रहता था तथा गाने बजाने वालों का साथी हो गया था। माता के बहुत कहने पर भी वह पिता के समीप नहीं जाता था और उनकी किसी आज्ञा को नहीं मानता था। उसके पिता घर के कार्यों तथा दीक्षा आदि देने में लगे रहते थे। जब घर पर आकर अपनी पत्नी से गुणनिधि के बारे में पूछते तो वह झूठ कह देती कि वह कहीं स्नान करने या देवताओं का पूजन करने गया है। केवल एक ही पुत्र होने कारण वह अपने पुत्र की कमियों को छुपाती रहती थी। उन्होंने अपने पुत्र का विवाह भी करा दिया। माता नित्य अपने पुत्र को समझाती थी। वह उसे यह भी समझाती थी कि तुम्हारी बुरी आदतों के बारे में तुम्हारे पिता को पता चल गया तो वे क्रोध के आवेश में हम दोनों को मार देंगे। परंतु गुणनिधि पर मां के समझाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।

एक दिन उसने अपने पिता की अंगूठी चुरा ली और उसे जुए में हार आया । दैवयोग से उसके पिता को अंगूठी के विषय में पता चल गया जब उन्होंने अंगूठी जुआरी के हाथ में देखी और उससे पूछा तो जुआरी ने कहा- मैंने कोई चोरी नहीं की है। अंगूठी मुझे तुम्हारे पुत्र ने ही दी है। यही नहीं, बल्कि उसने और जुआरियों को भी बहुत सारा धन घर से लाकर दिया है। परंतु आश्चर्य तो यह है कि तुम जैसे पण्डित भी अपने पुत्र के लक्षणों को नहीं जान पाए। यह सारी बातें सुनकर पंडित दीक्षित का सिर शर्म से झुक गया। वे सिर झुकाकर और अपना मुंह ढककर अपने घर की ओर चल दिए। घर पहुंचकर, गुस्से से उन्होंने अपनी पत्नी को पुकारा अपनी पत्नी से उन्होंने पूछा, तेरा लाडला पुत्र कहां गया है? मेरी अंगूठी जो मैंने सुबह तुम्हें दी थी, वह कहां है? मुझे जल्दी से दो पंडित की पत्नी ने फिर झूठ बोल दिया, मुझे स्मरण नहीं है कि वह कहां है। अब तो दीक्षित जी को और भी क्रोध आ गया।

वे अपनी पत्नी से बोले :– तू बड़ी सत्यवादिनी है। इसलिए मैं जब भी गुणनिधि के बारे में पूछता हूं, तब मुझे अपनी बातों से बहला देती है। यह कहकर दीक्षित जी घर के अन्य सामानों को ढूंढ़ने लगे किंतु उन्हें कोई वस्तु न मिली, क्योंकि वे सब वस्तुएं गुणनिधि जुए में हार चुका था। क्रोध में आकर पंडित ने अपनी पत्नी और पुत्र को घर से निकाल दिया और दूसरा विवाह कर लिया।

शिव पुराण

श्रीरुद्र संहिता

प्रथम खण्ड

अठारहवाँ अध्याय

"गुणनिधि को मोक्ष की प्राप्ति"

ब्रह्माजी बोले :– हे नारद ! जब यह समाचार गुणनिधि को मिला तो उसे अपने भविष्य की चिंता हुई। वह कई दिनों तक भूखा-प्यासा भटकता रहा। एक दिन भूख-प्यास से व्याकुल वह एक शिव मंदिर के पास बैठ गया। एक शिवभक्त अपने परिवार सहित, शिव पूजन के लिए विविध सामग्री लेकर वहां आया था। उसने परिवार सहित भगवान शिव का विधि विधान से पूजन किया और नाना प्रकार के पकवान शिवलिंग पर चढ़ाए।

पूजन के बाद वे लोग वहां से चले गए तो गुणनिधि ने भूख से मजबूर होकर उस भोग को से चोरी करने का विचार किया और मंदिर में चला गया। उस समय अंधेरा हो चुका था इसलिए उसने अपने वस्त्र को जलाकर उजाला किया। यह मानो उसने भगवान शिव के सम्मुख दीप जलाकर दीपदान किया था। जैसे ही वह सब भोग उठाकर भागने लगा उसके पैरों की धमक से लोगों को पता चल गया कि उसने मंदिर में चोरी की है। सभी उसे पकड़ने के लिए दौड़े और उसका पीछा करने लगे। नगर के लोगों ने उसे खूब मारा। उनकी मार को उसका भूखा शरीर सहन नहीं कर सका। उसके प्राण पखेरू उड़ गए ।

उसके कुकर्मों के कारण यमदूत उसको बांधकर ले जा रहे थे। तभी भगवान शिव के पार्षद वहां आ गए और गुणनिधि को यमदूतों के बंधनों से मुक्त करा दिया। यमदूतों ने शिवगणों को नमस्कार किया और बताया कि यह बड़ा पापी और धर्म-कर्म से हीन है। यह अपने पिता का भी शत्रु है। इसने शिवजी के भोग की भी चोरी की इसने बहुत पाप किए हैं। इसलिए यह यमलोक का अधिकारी है। इसे हमारे साथ जाने दें ताकि विभिन्न नरकों को यह भोग सके। तब शिव गणों ने उत्तर दिया कि निश्चय ही गुणनिधि ने बहुत से पाप कर्म किए हैं परंतु इसने कुछ पुण्य कर्म भी किए हैं। जो संख्या में कम होने पर भी पापकर्मों को नष्ट करने वाले हैं। इसने रात्रि में अपने वस्त्र को फाड़कर शिवलिंग के समक्ष दीपक में बत्ती डालकर उसे जलाया और दीपदान किया।

इसने अपने पिता के श्रीमुख से एवं मंदिर के बाहर बैठकर शिवगुणों को सुना है और ऐसे ही और भी अनेक धर्म-कर्म इसने किए हैं। इतने दिनों तक भूखा रहकर इसने व्रत किया और शिवदर्शन तथा शिव पूजन भी अनेकों बार किया है। इसलिए यह हमारे साथ शिवलोक को जाएगा। वहां कुछ दिनों तक निवास करेगा। जब इसके संपूर्ण पापों का नाश हो जाएगा तो भगवान शिव की कृपा से यह कलिंग देश का राजा बनेगा। अतः यमदूतो, तुम अपने लोक को लौट जाओ। यह सुनकर यमदूत यमलोक को चले गए। उन्होंने यमराज को इस विषय में सूचना दे दी और यमराज ने इसको प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया।

तत्पश्चात गुणनिधि नामक ब्राह्मण को लेकर शिवगण शिवलोक को चल दिए। कैलाश पर भगवान शिव और देवी उमा विराजमान थे। उसे उनके सामने लाया गया। गुणनिधि ने भगवान शिव-उमा की चरण वंदना की और उनकी स्तुति की। उसने महादेव से अपने किए कर्मों के बारे में क्षमा याचना की। भगवान ने उसे क्षमा प्रदान कर दी। वहां शिवलोक में कुछ दिन निवास करने के बाद गुणनिधि कलिंग देश के राजा 'अरिंदम' के पुत्र दम के रूप में विख्यात हुआ ।

हे नारद ! शिवजी की थोड़ी सी सेवा भी उसके लिए अत्यंत फलदायक हुई। इस गुणनिधि के चरित्र को जो कोई पढ़ता अथवा सुनता है, उसकी सभी कामनाएं पूरी होती हैं तथा वह मनुष्य सुख-शांति प्राप्त करता है।

शिव पुराण

श्रीरुद्र संहिता

प्रथम खण्ड

उन्नीसवाँ अध्याय

"गुणनिधि को कुबेर पद की प्राप्ति"

नारद जी ने प्रश्न किया :- हे ब्रह्माजी ! अब आप मुझे यह बताइए कि गुणनिधि जैसे महापापी मनुष्य को भगवान शिव द्वारा कुबेर पद क्यों और कैसे प्रदान किया गया? हे प्रभु! कृपा कर इस कथा को भी बताइए।

ब्रह्माजी बोले :- नारद ! शिवलोक में सारे दिव्य भोगों का उपभोग तथा उमा महेश्वर का सेवन कर, वह अगले जन्म में कलिंग के राजा अरिंदम का पुत्र हुआ। उसका नाम दम था। बालक दम की भगवान शंकर में असीम भक्ति थी। वह सदैव शिवजी की सेवा में लगा रहता था। वह अन्य बालकों के साथ मिलकर शिव भजन करता।

युवा होने पर उसके पिता अरिंदम की मृत्यु के पश्चात दम को राजसिंहासन पर बैठाया गया। राजा दम सब ओर शिवधर्म का प्रचार और प्रसार करने लगे। वे सभी शिवालयों में दीप दान करते थे। उनकी शिवजी में अनन्य भक्ति थी। उन्होंने अपने राज्य में रहने वाले सभी ग्रामाध्यक्षों को यह आज्ञा दी थी कि 'शिव मंदिर' में दीपदान करना सबके लिए अनिवार्य है। अपने गांव के आस-पास जितने शिवालय हैं, वहां सदा दीप जलाना चाहिए। राजा दम ने आजीवन शिव धर्म का पालन किया। इस तरह वे बड़े धर्मात्मा कहलाए। उन्होंने शिवालयों में बहुत से दीप जलवाए। इसके फलस्वरूप वे दीपों की प्रभा के आश्रय हो मृत्योपरांत अलकापुरी के स्वामी बने।

ब्रह्माजी बोले :- हे नारद ! भगवान शिव का पूजन व उपासना महान फल देने वाली है। दीक्षित के पुत्र गुणनिधि ने, जो पूर्ण अधर्मी था, भगवान शिव की कृपा पाकर दिक्पाल का पद पा लिया था। अब मैं तुम्हें उसकी भगवान शिव के साथ मित्रता के विषय में बताता हूं।

नारद ! बहुत पहले की बात है। मेरे मानस पुत्र पुलस्त्य से विश्रवा का जन्म हुआ और विश्रवा के पुत्र कुबेर हुए। उन्होंने पूर्वकाल में बहुत कठोर तप किया। उन्होंने विश्वकर्मा द्वारा रचित अलकापुरी का उपभोग किया। मेघवाहन कल्प के आरंभ होने पर वे कुबेर के रूप में घोर तप करने लगे। वे भगवान शिव द्वारा प्रकाशित काशी पुरी में गए और अपने मन के रत्नमय दीपों से ग्यारह रुद्रों को उद्बोधित कर वे तन्मयता से शिवजी के ध्यान में मग्न होकर निश्चल भाव से उनकी उपासना करने लगे। वहां उन्होंने शिवलिंग की प्रतिष्ठा की। उत्तम पुष्पों द्वारा शिवलिंग का पूजन किया। कुबेर पूरे मन से तप में लगे थे। उनके पूरे शरीर में केवल हड्डियों का ढांचा और चमड़ी ही बची थी। इस प्रकार उन्होंने दस हजार वर्षों तक तपस्या की। तत्पश्चात भगवान शिव अपनी दिव्य शक्ति उमा के भव्य रूप के साथ कुबेर के पास गए। अलकापति कुबेर मन को एकाग्र कर शिवलिंग के सामने तपस्या में लीन थे।

भगवान शिव ने कहा :- अलकापते! मैं तुम्हारी भक्ति और तपस्या से प्रसन्न हूं। तुम मुझसे अपनी इच्छानुसार वर मांग सकते हो। यह सुनकर जैसे ही कुबेर ने आंखें खोलीं तो उन्हें अपने सामने भगवान नीलकंठ खड़े दिखाई दिए। उनका तेज सूर्य के समान था। उनके मस्तक पर चंद्रमा अपनी चांदनी बिखेर रहा था। उनके तेज से कुबेर की आंखें चौंधिया गईं। तत्काल उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं।

वे भगवान शिव से बोले :- भगवन्! मेरे नेत्रों को वह शक्ति दीजिए, जिससे मैं आपके चरणारविंदों का दर्शन कर सकूं।

कुबेर की बात सुनकर भगवान शिव ने अपनी हथेली से कुबेर को स्पर्श कर देखने की शक्ति प्रदान की। दिव्य दृष्टि प्राप्त होने पर वे आंखें फाड़-फाड़कर देवी उमा की ओर देखने लगे। वे सोचने लगे कि भगवान शिव के साथ यह सर्वांग सुंदरी कौन है? इसने ऐसा कौन सा तप किया है जो इसे भगवान शिव की कृपा से उनका सामीप्य रूप और सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वे देवी उमा को निरंतर देखते जा रहे थे। देवी को घूरने के कारण उनकी बायीं आंख फूट गई। शिवजी ने उमा से कहा- उमे! यह तुम्हारा पुत्र है। यह तुम्हें क्रूर दृष्टि से नहीं देख रहा है। यह तुम्हारे तप बल को जानने की कोशिश कर रहा है,

फिर भगवान शिव ने कुबेर से कहा :– मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें वर देता हूं कि तुम समस्त निधियों और गुह्य शक्तियों के स्वामी हो जाओ। सुव्रतों, यक्षों और किन्नरों के अधिपति होकर धन के दाता बनो। मेरी तुमसे सदा मित्रता रहेगी और मैं तुम्हारे पास सदा निवास करूंगा अर्थात तुम्हारे स्थान अलकापुरी के पास ही मैं निवास करूंगा। कुबेर अब तुम अपनी माता उमा के चरणों में प्रणाम करो। ये ही तुम्हारी माता हैं।

ब्रह्माजी कहते हैं :– नारद! इस प्रकार भगवान शिव ने देवी से कहा- हे देवी! यह आपके पुत्र के समान है। इस पर अपनी कृपा करो। यह सुनकर उमा देवी बोली-वत्स! तुम्हारी, भगवान शिव में सदैव निर्मल भक्ति बनी रहे। बायीं आंख फूट जाने पर तुम एक ही पिंगल नेत्र से युक्त रहो। महादेव जी ने जो वर तुम्हें प्रदान किए हैं, वे सुलभ हैं। मेरे रूप से ईर्ष्या के कारण तुम कुबेर नाम से प्रसिद्ध होगे। कुबेर को वर देकर भगवान शिव और देवी उमा अपने धाम को चले गए। इस प्रकार भगवान शिव और कुबेर में मित्रता हुई और वे अलकापुरी के निकट कैलाश पर्वत पर निवास करने लगे।

नारद जी ने कहा :- ब्रह्माजी! आप धन्य हैं। आपने मुझ पर कृपा कर मुझे इस अमृत कथा के बारे में बताया है। निश्चय ही, शिव भक्ति दुखों को दूर कर समस्त सुख प्रदान करने वाली है।

शिव पुराण

श्रीरुद्र संहिता

प्रथम खण्ड

बीसवाँ अध्याय

"भगवान शिव का कैलाश पर्वत पर गमन"

ब्रह्माजी बोले :– हे नारद मुनि ! कुबेर के कैलाश पर्वत पर तप करने से वहां पर भगवान शिव का शुभ आगमन हुआ। कुबेर को वर देने वाले विश्वेश्वर शिव जब निधिपति होने का वर देकर अंतर्धान हो गए, तब उनके मन में विचार आया कि मैं अपने रुद्र रूप में, जिसका जन्म ब्रह्माजी के ललाट से हुआ है और जो संहारक है, कैलाश पर्वत पर निवास करूंगा। शिव की इच्छा से कैलाश जाने के इच्छुक रुद्र देव ने बड़े जोर-जोर से अपना डमरू बजाना शुरू कर दिया।

वह ध्वनि उत्साह बढ़ाने वाली थी। डमरू की ध्वनि तीनों लोकों में गूंज रही थी। उस ध्वनि में सुनने वालों को अपने पास आने का आग्रह था। उस डमरू ध्वनि को सुनकर ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता, ऋषि-मुनि, वेद-शास्त्रों को जानने वाले सिद्ध लोग, बड़े उत्साहित होकर कैलाश पर्वत पर पहुंचे। भगवान शिव के सारे पार्षद और गणपाल जहां भी थे वे कैलाश पर्वत पर पहुंचे। साथ ही असंख्य गणों सहित अपनी लाखों-करोड़ों भयावनी भूत-प्रेतों की सेना के साथ स्वयं शिवजी भी वहां पहुंचे। सभी गणपाल सहस्रों भुजाओं से युक्त थे। उनके मस्तक पर जटाएं थीं। सभी चंद्रचूड़, नीलकण्ठ और त्रिलोचन थे। हार, कुण्डल, केयूर तथा मुकुट से वे अलंकृत थे।

भगवान शिव ने विश्वकर्मा को कैलाश पर्वत पर निवास बनाने की आज्ञा दी। अपने व अपने भक्तों के रहने के लिए योग्य आवास तैयार करने का आदेश दिया। विश्वकर्मा ने आज्ञा पाते ही अनेकों प्रकार के सुंदर निवास स्थान वहां बना दिए। उत्तम मुहूर्त में उन्होंने वहां प्रवेश किया। इस मधुर बेला पर सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों और सिद्धों सहित ब्रह्मा और विष्णुजी ने शिवजी व उमा का अभिषेक किया। विभिन्न प्रकार से उनकी पूजा-अर्चना और स्तुति की। प्रभु की आरती उतारी। उस समय आकाश में फूलों की वर्षा हुई। इस समय चारों और भगवान शिव तथा देवी उमा की जय-जयकार हो रही थी। सभी की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार वरदान दिया तथा उन्हें अभीष्ट और मनोवांछित वस्तुएं भेंट कीं।

तत्पश्चात भगवान शंकर की आज्ञा लेकर सभी देवता अपने-अपने निवास को चले गए। कुबेर भी भगवान शिव की आज्ञा पाकर अपने स्थान अलकापुरी को चले गए। तत्पश्चात भगवान शंभु वहां निवास करने लगे। वे योग साधना में लीन होकर ध्यान में मग्न रहते। कुछ समय तक वहां अकेले निवास करने के बाद उन्होंने दक्षकन्या देवी सती को पत्नी रूप में प्राप्त कर लिया । देवर्षि! अब रुद्र भगवान देवी सती के साथ वहां सुखपूर्वक विहार करने लगे।

हे नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें भगवान शिव के रुद्र अवतार का वर्णन और उनके कैलाश पर आगमन की उत्तम कथा सुनाई है। तुम्हें शिवजी व कुबेर की मित्रता और भगवान शिव की विभिन्न लीलाओं के विषय में बताया है। उनकी भक्ति तीनों लोकों का सुख प्रदान करने वाली तथा मनोवांछित फलों को देने वाली है। इस लोक में ही नहीं परलोक में भी सद्गति प्राप्त होती है ।

इस कथा को जो भी मनुष्य एकाग्र होकर सुनता या पढ़ता है, वह इस लोक में सुख और भोगों को पाकर मोक्ष को प्राप्त होता है।

नारद जी ने ब्रह्माजी का धन्यवाद किया और उनकी स्तुति की। वे बोले कि प्रभु, आपने मुझे इस अमृत कथा को सुनाया है। आप महाज्ञानी हैं। आप सभी की इच्छाओं को पूर्ण करते हैं। मैं आपका आभारी हूं। शिव चरित्र जैसा श्रेष्ठ ज्ञान आपने मुझे दिया है। हे प्रभो! मैं आपको बारंबार नमन करता हूं।

॥ श्रीरुद्र संहिता प्रथम खण्ड समाप्त॥

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *